समाज में एकता को बनाए रखने मे धर्म अहम भूमिका निभाता है।
धर्म किसी भी व्यक्ति को व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सभी स्तरों पर प्रभावित करता है और साथ ही धर्म किसी भी समाज में एकजुटता का एहसास भी दिलाता है।
धर्म की वजह से लोगों की विचारधाराओं में समानता होती है और एक धर्म के लोग विश्वस्तर पर एक दूसरे से जुड़ाव महसूस करते हैं और सामूहिक उन्नति के लिए अग्रसर होते हैं।
लोगों के बीच अगर एकता एवं सामंजस्य न हो तो धर्म की परिकल्पना ही बेमानी हो जाती है। हिंदु ,मुस्लिम, सिख एवं इसाई धर्मों में भी एक विचारधारा की वजह से लोगों में एकजुटता की भावना का विकास हुआ है।
धर्म की अभिप्रेरणा:
धर्म या मजहब अपने अनुयायिओं को एकता के सूत्र में पिरोकर रखने का कार्य भी करता है। अनेकता में एकता का सर्वोत्तम उदाहरण पेश करते हुए भारत के प्रसिद्ध कवि मोहम्मद इकबाल की 1904 में लिखी गई पंक्तियां “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” अर्थात् दुनिया का हर धर्म आपस में एकता का पाठ पढ़ाते हैं, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार धर्म लोगों को संगठित करने का कार्य करता है और भाईचारे की भावना के साथ समाज को समग्र विकास के पथ पर अग्रसर करता है। सामाजिक एकता को बढ़ाना विश्व के सभी धर्मों की स्थापना का मूल उद्देश्य है।
महात्मा बुद्ध ने भी धर्मम शरणं गच्छामि, संघम शरणं गच्छामि का संदेश दिया। अर्थात् उन्होंने धर्म के शरण में और इस प्रकार संघ के शरण में अर्थात संगठित होने का आह्वान किया जो कि आपसी एकता एवं भाईचारे को बताया है।
पैगम्बर मोहम्मद ने भी धर्म को सभी इंसानों की भलाई के लिए एकता स्थापित करने का जरिया माना है। उसी प्रकार संत कबीर एवं रविदास ने भी धर्म की व्याख्या सभी इंसानों की भलाई एवं आपसी भाईचारे एवं एकता के प्रतीक के तौर पर की है। ईसा मसीह ने धर्म को पूरे विश्व में एकता स्थापित करने का साधन माना है। महावीर जैन ने तो सैकड़ों वर्ष पहले ही धर्म को प्राणिमात्र के लिए करुणा, भाईचारे एवं एकता का माध्यम माना है।
धार्मिक अखंडता का अवलोकन:
धार्मिक एकता को खंडन करने के बाद ही अंग्रेज भारत पर कब्जा करने में कामयाब हो पाए। अंग्रेजों 200 वर्षों तक भारत पर शासन किया था। हम निश्चित रूप से इतने वर्षों की गुलामी से बच जाते अगर हमने साम्प्रदायिकता की भावनाओं पर रोक लगाते हुए, सर्वधर्म समभाव एवं धर्म की मूल भावना को सही अर्थों में समझा और अपनाया जाना होता है।
विश्व के धर्म प्रधान देशों, जिनमें से कुछ देशों में तो धार्मिक कट्टरवाद अपने चरम पर पहुंच चुका है,धर्म का उद्देश्य अपने अनुयायियों को जीवन जीने के लिए जरूरी सभी गुणों से परिपूर्ण करते हुए एक ऐसा आधार प्रदान करना है जिससे वे एकता की भावना से संगठित होकर समाज की भलाई के लिए कार्य कर सकें।
इन संदेशों का सार यह है कि हर मजहब या धर्म एकता का ही पाठ पढ़ाते हैं। इसीलिए सही मायनों में सभी धर्म के अनुयायियों को अपनी जीवन शैली को सुदृढ़ कर ‘राष्ट्रधर्म ही सर्वोपरि है’ का संदेश देना चाहिए।
क्योंकि मेरा मानना है कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों के धर्म प्रचारक भी हैं जो अपने धर्म के प्रचार में लगे रहते हैं। जब कोई एक धर्म विशेष के लोग एक जगह पर इकट्ठा होते हैं तो उनके बीच में वैचारिक एकता सीधे तौर पर होती है।
मेरा इस लेख को लिखने का अभिप्राय इतना ही है की जैसे जैसे कही भी राज्यों में चुनाव का समय आता है जाति–धर्म के नाम पे राजनिति शुरू हो जाती है, लोग आपस में साज़िश – रंजिशे अपनाने लगते है। ये सब नहीं होना चाहिए। भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है और यहां कि कुल जनसंख्या विभिन्न धर्मों के लोगों से मिलकर बनी है। इसके बावजूद यह राष्ट्रधर्म ही सर्वोपरि है।
हिंदू धर्म “सर्वधर्म समभाव” एवं “वसुधैव कुटुंबकम” की भावना से प्रेरित है वहीं इस्लाम, “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” का भी संदेश देता है।
ये मेरी कर्मभूमि, ये मेरी जन्मभूमि,
तहज़ीब मेरी, विश्वास मेरा
ये बस हिन्द नहीं, हिन्दराष्ट्र मेरा।।
By: Tanwi Mishra
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