डॉo मोहम्मद शहाबुद्दीन साहब की क़ब्र पर आज जाकर फ़ातिहा पढ़ने का मौक़ा मिला……
उफ्फ हमारे शेर……
जब आप 01.05.2021 को दुनिया से रुखसत हुए…
तो मैं नजरे आलम आका (अo) की शान में गुस्ताखी के खिलाफ एहतेजाज करने के जुर्म में फर्जी हुकमरां की नजर में मुजरिम था…
और तरह तरह के केसों में मुझे उल्झा कर दुर रखा गया…… और ये सिलसिला अभी तक जारी ही है….
आह डॉo साहब… दिल से माजरत ख्वाह हुं ……
वक्त ने वफ़ा कि,
मैं सीधा आज 24.08.2021 को आपके पास चला आया… आकर ऐसा महसूस हो रहा है जिस्की तर्जुमानी अल्फाज़ के बस में नहीं……
एक अजीब सा सोरूर मन में छा गया है… ऐसा लग रहा है कोई गैबी ताकत रूह को सरशार कर रही हो……
सच ही कहते हैं……
कुछ लोग मर कर भी हमेशा जिंदा रहते हैं…
और कोई जीते जी ही गुमनाम हो जाता है……
नहीं नहीं डॉक्टर साहब को मुर्दा कौन कह सकता है…
वो तो ज़िंदा हैं हमारे दिलों में,
तमाम बिहार के अमन पसंद आवाम के दिलों में……
कौन मार सकता है उन्हें….
डॉo साहब हमारी रूह की गरमाहट, और ज़ुल्म के खिलाफ़ एक बुलंद आवाज़ की सूरत में वो आज भी हमारे पास महफूज़ हैं……
अल्लाह उन्हें ग़रीके रहमत करे…
ओ…..
क्या ही इंसाफ पसंद थे वो…….!!!!
नज़रें आलम
बेदारी कारवां