पिछले दिनों सिवान में डीएसपी रहे एक व्यक्ति ने अपनी जातीय कुंठा को पूरी मासूमियत के साथ भरपूर छलकाया. लेकिन, बहुत चालाकी से इस बात को छुपाया कि अपने बच्चे की कॉपी और क्वेश्चन पेपर वे बाहर निकलवा कर लिखवा रहे थे, और डीएवी कॉलेज के प्रिंसपल पीएन पाठक जी ने जब शहाबुद्दीन जी से कहा कि मुझे ग्लानि हो रही है कि मेरे सामने ही डीएसपी इस तरह का अनैतिक काम करा रहे हैं, तो शहाबुद्दीन जी वहाँ अनधिकृत गए, डीएसपी द्वारा अपने बेटे के लिए कदाचार कराने के चलते दोनों के बीच तू-तू मैं-मैं हुई, थोड़ी धक्कामुक्की भी हुई.
उस बात को इशु बना कर एसपी बच्चू सिंह और डीएसपी ने उन पर मुक़दमा किया, उनके गाँव जाकर झड़प को अंज़ाम दिया, गोलीबारी हुई.
डीजीपी डी पी ओझा की राजनैतिक महत्वाकांक्षा थी. जदयू ने उन्हें सिवान से लोकसभा लड़ने का अॉफर दिया, हालांकि वे बेगूसराय से लड़े, और दो हज़ार से भी कम वोट लाया. उनके अपने समधी जो यूपी में चीफ सेक्रेटरी थे, उनके घर पर संगीन मामले में छापे पड़े.
डीजीपी रहते हुए डी पी ओझा जी ने सिवान के एमपी पर आईएसआई से जुड़े होने के अनर्गल आरोप लगाए. इस बात की जानकारी होने पर शहाबुद्दीन जी को मुनव्वर राना ने काग़ज़ के टुकड़े पर एक शेर लिख कर भिजवाया:
फ़कत इस बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के एक बरतन पे आईएसआई लिक्खा है.
शहाबुद्दीन कहते हैं, “यह समाज की कौन-सी बनावट का हिस्सा है कि हम मज़बूती से अपनी बात रखें, तो हमें लेबल किया जाता है, आईएसआई का एजेंट बता दिया जाता है, और आडवाणी जी पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जाकर उनकी तारीफ़ कर आते हैं, तो उनका कुछ नहीं होता.
अगर आईएसआई के माने इंडियन स्टैंडर्ड इंस्टीट्यूशन है, तो हां मैं हूँ, मैं हूँ, मैं हूँ.”
“मैंने कश्मीर में कम-से-कम पांच सौ परिवारों से अपने दायरे से अपने इंस्टीट्यूशन से 500 बच्चों को डॉक्टर बनाया. उन परिवारों से मैं जुड़ा रहा हूँ. उन फैमिली को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, उनके यहाँ आज भी जाता हूँ, कल भी जाऊंगा, कल भी जाता था.”
“जब कारगिल वॉर का वक़्त था, तो मैंने राष्ट्रपति महोदय से मिलकर रेप्रजेंटेशन दिया कि मैं एनसीसी ट्रेंड हूँ. मैं चाहता हूँ कि मेरी जान जाए तो इस मुल्क की सरहद पे जाए. मैं पहला सांसद होऊंगा जिसने बॉर्डर पर वतन की हिफ़ाज़त के लिए लड़ने की इच्छा जाहिर की, और प्रेज़िडेंट का जवाब भी आया.”
“बिन बुलाए तो मैं ईश्वर के यहाँ भी नहीं जाता हूँ, बाक़ी कहीं क्या जाऊंगा!”
इस पोस्ट को जयंत जिज्ञासु ने अपने सोशल मीडिया पर शेयर किया था, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अक्सर अपने सोशल मीडिया पर लिखते रहते हैं।
आपको बता दें हाल ही में इंडिया टीवी आप की अदालत में पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन साहब का इंटरव्यू हुआ था हालांकि सही तारीख तो नहीं पता लेकिन माना जाता है कि यह इंटरव्यू 2005 के आसपास हुई होगी।
इसमें बड़ा सवाल यह है कि आखिर इस इंटरव्यू को तब रिलीज ना करके अब क्यों किया गया। और यह बात उसी वक्त सामने आती तो शायद नतीजा कुछ और भी हो सकता था।
शायद आज के राजनीति में सबसे बेहतर विकल्प यही है कि सामने वाले पर आरोप की झरिया लगा दो और उसको मुंह बंद करके जेलों में डाल दो ना तो वह दलील दे पाएगा और वह ना ही बात कह पाएगा और जो दो पार्टी के तरफ से बात आनी चाहिए वह एक ही पार्टी दोनों तरफ की बात करेगी तो जाहिर सी बात है इन सब के पीछे किसी राजनीतिक षड्यंत्र और सत्ता लोभ की बू आती है।
और भारतीय राजनीति में अक्सर देखा गया है यानी आजाद हिंदुस्तान में जिस तरह अंग्रेज मुसलमानों की जुबान बंद करने की कोशिश करते थे, ठीक उसी तरीके से आजाद हिंदुस्तान का सिस्टम का एक ऐसा चक्रव्यू बन चुका है कि अल्पसंख्यक समाज, पिछड़ा समाज आसानी से दबता चला जाता है और उनकी रहनुमाई करने वाला भी संविधानिक सिस्टम का असंवैधानिक तरीके से उसके नीचे तले दब जाता है।