मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गए जय श्रीराम!- राजीव यादव

राम मनोहर लोहिया की पुण्यतिथि 12 अक्टूबर को है. उन्हीं के विचारों को आधार बना कर नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव ने पार्टी की नींव धरी थी. 11 अक्टूबर को सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान करने वाले लोकनायक जय प्रकाश नारायण का जन्म दिवस था. लोकतंत्र को बचाने की उस लड़ाई में देश ने आपातकाल झेला. उस लड़ाई ने मुलायम सिंह को पैदा किया. 9 अक्टूबर को मान्यवर कांशीराम की पुण्यतिथि थी और 10 अक्टूबर को मुलायम सिंह चल बसे.

जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है के नारों के बीच धरती पुत्र उसी मिट्टी में शामिल हो गए जिस पर उन्होंने जमीनी राजनीति की. दोराय नहीं कि मुलायम सिंह हों या कांशीराम उनकी भूमिकाओं के सटीक मूल्यांकन और उसके मुताबिक लिये जानेवाले कार्यभार ही सामाजिक न्याय की राजनीति का भविष्य तय करेंगे. जरूरत होगी कि मूल्यांकन में हम कठोर और निर्मम आलोचनाओं से परहेज करना छोड़ें. इसी से बेहतर भविष्य का रास्ता खुलेगा. आज नेताजी और मान्यवर की शिशु पौध वयस्क और परिपक्व हो गई है. तमाम युवाओं के नाम मुलायम और कांशीराम है. यह दोनों के अद्भुत प्रभाव का सूचक है.

मुलायम सिंह का जलवा कायम हुआ तो मजबूत और साझा पहल के चलते जिसके स्तंभ थे आज़म खान, बेनी प्रसाद वर्मा, मोहन सिंह, जनेश्वर मिश्र जैसे जमीनी समझ रखने वाले व्यक्तित्व. हाशिमपुरा-मलियाना की गलियों में आजम खान ने मुलायम सिंह को जब घुमाया और बाबरी मस्जिद के सवाल पर जो स्टैंड लिया उससे भले ही मुल्ला मुलायम की इमेज बनी पर उसने साम्प्रदायिकता को मुंह तोड़ जवाब दिया. इसलिए मनुवादी प्रभाव वाले राजनीतिक वर्चस्व के हावी होने के दौर में मुस्लिमों से अलग दिखने की कोशिश भारत के बेहतर भविष्य के लिए ठीक नहीं होगी.

बाबरी मस्जिद विध्वंस के मुश्किल दौर में मुलायम सिंह-कांशीराम के गठबंधन से राजनीति की बयार बदल गई थी. मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम! उस दौर की सियासी-समाजी समझ ने इतनी बड़ी घटना के बाद भी नफरत की राजनीति का मुंह तोड़ दिया. यही वह पड़ाव था जिसने मुलायम सिंह को मुस्लिमों का नेता बना दिया. लेकिन पिछले कुछ समय से उन्हीं की बनाई पार्टी इस पहचान से किनारा करने लगी. इसका बड़ा नुकसान हुआ. मुस्लिमों के प्रति बहुसंख्यक हिन्दू समाज जो वैचारिक तौर पर भले ही सेकुलर मूल्यों वाला नहीं था पर सांस्कृतिक-लोक जीवन से उसका मजबूत रिश्ता था वो दरकने लगा.

वहीं पंद्रह-पच्चासी की बात करने वाले मान्यवर द्वारा भाजपा के फासीवादी-साम्प्रदायिक चरित्र को दरकिनार करने की वजह से उन्हीं के द्वारा बनाया गया बहुजन का किला ढहने लगा. अविश्वास बढ़ा तो नुकसान ये हुआ कि जहां मुस्लिम उनसे छिटक गया वहीं उसके कमजोर होते ही दलित भी फिर से उसी ब्राह्मणवाद की गोदी में जा बैठा जिसे जूता मारने की बात कही गयी थी. भारत विभिन्न जातियों का देश है और जाति की पैदाइश मनुवाद की कोख से होती है. उसी मनुवादी व्यवस्था को कायम करने वाला हिंदुत्व कभी भी बहुजन सत्ता को नहीं स्वीकारेगा. इसे गांठ बांध कर रखना चाहिए. मनुवाद ऐसा समंदर है जिसमें जा तो अपनी मर्जी से सकते हैं पर निकलेंगे तो लाश के रूप में. आज यूपी में जो हो रहा है, वह यही बता रहा है.

फिलहाल, जातियों के वर्चस्व की लड़ाई है. बाबा साहेब ने जातियों के खात्मे की बात कही थी यहां उल्टा हो गया. सपा की सरकार बनने से दलितों की एक जाति को खतरा हो जाता था कि उसका उत्पीड़न होगा और बसपा की सरकार से ओबीसी की एक जाति को प्रशासनिक दमन का खतरा सताने लगता था. पूरी राजनीति ने ही करवट बदल ली. गेस्ट हाउस कांड जैसी घटनाओं ने उसे और भी मजबूत किया.

दो दशक से भी अधिक समय तक इसमें कोई सुधार नहीं हुआ. यह राजनीतिक अहंकार का नतीजा था जिसने बहुजन नेतृत्व वाली राजनीति के किले को कमजोर किया. समय बहुत मिला पर सबने मान लिया था कि पच्चासी की गोलबंदी इन्हीं सपा-बसपा में ही रहेगी. इस गलतफहमी की पैदाइश योगी आदित्यनाथ की सरकार है.

खैर मोदी के केंद्र में सत्ता संभालने के बाद अक्ल ठिकाने आई पर बहुजन किले के कई सिपहसालार जिन्हें सम्मान-अधिकार नहीं मिल पाया या ये भी कहा जा सकता है कि नहीं दिया गया उन्होंने भाजपा से गलबहियां कर ली. इसको कुछ लोगों ने सेकंड मंडल भी कहा. इसकी नींव राजनाथ सिंह की सरकार में कोटे में कोटा आरक्षण के बंटवारे से और बढ़ी. यहां होना तो यह चाहिए था कि मंडल कमीशन के बाद उभरी राजनीति को दावा करना था कि सभी संसाधनों पर समान कब्जा. पर ऐसा लगता है जैसे जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी के नारे को ही भुला दिया गया. पिछड़ी जातियों के कोटे में कोटा की बहस को लेकर आज भी राजनीति हो रही है. उसके समांतर कभी नहीं मजबूती से दावा हुआ कि जातिगत जनगणना हो. बहुत दबाव में कांग्रेस ने करवाई भी तो वो कभी सार्वजनिक नहीं हुई. यहीं बीजेपी समझ गई कि जो अपने हक-हुक़ूक़ को लेकर खड़े नहीं हो सकते उनको अवसर का लाभ दिखा कर कभी भी तोड़ा जा सकता है.

ताज कॉरिडोर के मसले पर गिरी बसपा सरकार के बाद आई सपा सरकार में सबसे ज्यादा ओबीसी की कम संख्या वाली जातियों की पार्टियों का विस्तार हुआ. इसमें से ज्यादातर नेता कांशीराम के मिशन की पैदाइश थे. न सपा न बसपा कोई यह नहीं समझा पाया कि हम किसी एक जाति की पार्टी नहीं बल्कि मिशन हैं. जातिवादी वर्चस्व वाली मानसिकता के नेताओं को विचार से ज्यादा सत्ता की मलाई रास आने लगी थी. उस दौर में कारपोरेट के बढ़ते दबाव में सामाजिक न्याय आधारित इन पार्टियों की डिपेंडेंसी जनता पर कम कारपोरेट पर ज्यादा होने लगी. चाहे जेपी से गंगा एक्सप्रेस वे बनाने का मामला हो या फिर दादरी में अम्बानी को बिजली घर के लिए जमीन देने का मामला.

खैर संघ जान गया था कि अवसरवादी प्रवृत्ति को पैदा किए बिना इस किले को ध्वस्त करना संभव नहीं. भागीदारी का सवाल अब लूट की भागीदारी में बदल गया और सामाजिक न्याय की राजनीति के नाम पर आए नेताओं को भी सत्ता की मलाई ललचाने लगी. कभी सपा में जाते तो कभी बसपा और फिर भाजपा. इसी क्रम में देखें तो कांग्रेस जिसकी कोई ठोस विचारधारा नहीं है उसके नेताओं का भाजपा-कांग्रेस होते-होते कांग्रेस मुक्त भारत का आह्वान भाजपा करने लगी. वैचारिक स्तर का सवाल ही नहीं रह गया. इसीलिए सपा-बसपा के बाद सामाजिक न्याय के नाम पर बनी राजनीतिक पार्टियों का जोर जाता रहा, और इस तरह बहुजन समाज की दावेदारी का सवाल ही खत्म हो गया.

गंगा उल्टी बहने लगी. जिस एक्सप्रेस वे और बिजली घर के नाम पर किसानों की जमीनें छीनने की कोशिश में सरकारें गिर गईं आज उसकी गौरवगाथा सामाजिक न्याय के अलम्बरदार भी गा रहे हैं.

पिछले दिनों पीएफआई के प्रतिबंध के बाद जिस तरह के बयान आए उसने साफ किया कि राजनीति की हिंदुत्वादी बयार में सब बहने को बेचैन हैं. जब सिमी को इसी भाजपा ने प्रतिबंधित किया था तो उस दौर में इसी सपा के उस दौर के नेताओं के धरने-प्रदर्शनों की अखबारी कतरनें देखने को मिलीं.

जिसका जलवा कायम, उसका नाम मुलायम के नारे लगाने वालों से यह उम्मीद नहीं कि जा सकती कि बुलडोजर के खौफ से वो पीछे हट जाएं. कांशीराम राम ने जो बहुजन स्वाभिमान की अलख जगाई और मुलायम सिंह ने जो जुझारू तेवर अपनाया, उसके पीछे मनुवाद विरोधी ललई सिंह यादव पेरियार, राम स्वरूप वर्मा और जगदेव प्रसाद कुशवाहा की शहादत की महान विरासत थी.

उसी विरासत को आगे ले जाना यानी फुले, अम्बेडकर, बिरसा के सपनों का समाज बनाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए.

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