“मौलाना अलहाज इमाम अल्लामा शिबली नौमानी” इनकी पैदाईश 4 जून 1857 को शेख़ हबीबुल्लाह और मुक़ीमा ख़ातून के यहां गाँव बिंदवाल में ज़िला आज़मगढ़ उत्तर प्रदेश में हुई थी.
इनके छोटे भाई को तक पढ़ने के लिए लंदन भेज दिया गया था जहां से वो वक़ील बनकर आये और इलाहाबाद हाईकोर्ट में काम करने लगे जबकि अल्लामा की इब्तिदाई तालीम घर और मदरसे से शुरू हुई । अल्लामा को उर्दू के साथ साथ हिंदी, अंग्रेजी, जर्मन, फारसी, अरबी और तुर्की ज़बान का मुक़म्मल इल्म था । अल्लामा इमाम अबू हनीफा के खानदान से ताल्लुक़ रखते थे जिसकी निस्बत से नोमानी लगाते थे । ये शाह वलीउल्लाह, सर सय्यद और थॉमस अर्नोल्ड से मुतास्सिर थे और महात्मा गांधी, मौलाना आज़ाद, मौलाना सुलेमान नदवी, मौलाना अली जौहर, हमीदुद्दीन फराही, अहसान इस्लाही और मौलाना अब्दुस्सलाम नदवी जैसी अज़ीम शख्सियत इनसे मुतास्सिर थी । ये एक ऐसे मशहूर तालीममंद थे कि जहां-जहां गए वहां वहां अपने अक़ीदे की छाप छोड़ी और मुल्क़ के इत्तेहाद और सदाक़त को मज़बूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनका मानना था कि जब तक लोग तालीमयाफ्ता नहीं होंगे तब तक अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ादी नहीं मिलेगी । यही वजह थी कि उन्होंने तालीम के शोबे में काफी काम किया । और 1883 ई० में शिबली नेशनल कॉलेज की स्थापना की । कौमी ( राष्ट्रीय) सोच को आगे बढ़ाने के लिये इन्होंने कई आर्टिकल लिखे. जिनमें मुसलमानों की पॉलिटिकल करवट, अल-जजिया, हुकुकुल-जिम्मी वगैराह अहम है.
अल्लामा क़ौम के लोगों की तालीम के लिए भी काफी फ़िक्रमंद रहा करते थे । इन्होंने मुसलमानों की तालीमी, सियासी और सामाजिक हालात सुधारना के लिए बहुत काम किया. कहा जाता है कि वह अलीगढ यूनिवर्सिटी के फाउंडर मेंबर में से एक है और सर सय्यैद अहमद खान के साथ थे, इन्होंने कई सालों तक अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में ( तब मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज ) फ़ारसी और अरबी सिखाई । वहीं इनकी मुलाक़ात थॉमस अर्नोल्ड से हुई जो इनके अच्छे दोस्त बन गए थे इन्ही के साथ अल्लामा ने मिस्र, तुर्की, सीरिया और दीगर मिडिल ईस्ट के मुल्क़ों का सफर किया । जहां इन्हें जदीद मग़रिबी तालीम का ख़्याल आया पर सर सयैद के बरअक़्स वह चाहते थे कि मुसलमान मग़रिबी तालीम के साथ साथ, अपनी खोई हुई विरासत और रिवायत को भी दोबारा हासिल करे और ख़ुद्दार बने इनकी इस बात का समर्थन मौलाना अबुल कलाम ने भी किया था । ये 1898 तक अलीगढ़ यूनिवर्सिटी रहें लेकिन सर सैयद की मौत के बाद ये वहाँ से हैदराबाद रियासत चले गए जहाँ इन्हें तालीमी शोबे ( एजुकेशन डिपार्टमेंट ) का मुशीर ( सलाहकार ) बनाया गया और इन्होंने ओस्मानिया यूनिवर्सिटी में उर्दू को तालीम का ज़रिया बनवाया जोकि हिन्दोस्तान में सबसे पहले उच्च शिक्षा में बनाया गया था । इससे पहले उर्दू उच्च शिक्षा में निर्देश का माध्यम नहीं थी । वहां से 1905 में ये लखनऊ आ गए और नदवात उल उलूम में प्रिंसिपल रहें । इसके बाद अपने आख़िरी दिनों में ये आज़मगढ़ वापस आ गए जहाँ इन्होंने “दारुल मुस्सनिफिन” ( शिबली एकेडमी ) की नींव रखी। दारुल मुस्सानिफिन शिबली एकेडमी के लिए तो इन्होंने खुद का घर और आम का बाग तक बेच डाला था और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को भी खत लिखकर मदद के लिए कहा था । लेकिन अफसोस कि ये अपने सामने इस ख़्वाब को पूरा ना कर पाए 18 नवंबर 1914 को अल्लामा का इंतकाल हुआ। इसी दिन दारुलमुसन्निफ़ीन शिब्ली एकेडमी की नींव पड़ी। 3 दिन बाद 21 नवंबर को प्रबन्ध समिति का गठन हुआ। मौलाना हमीदुद्दीन फराही सभापति व मौलाना सैय्यद सुलेमान नदमी प्रबंधक चुने गए। दारुलमुसन्निफ़ीन के अंतर्गत छह विभाग बनाये गए। इसमें दार-उल-तसनीफ़ (लेखन), दार-उल-इशाअत (प्रकाशन), दार-उल-तबाअत, शोबा रिसाला ‘मआरिफ़’ (पत्रिका), दार-उल-कुतुब (पुस्तक) व शोबा-ए-तामीरात (निर्माण विभाग) शामिल है । आजादी में भी इस एकेडमी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 1930 के आस-पास गांधी जी का आजमगढ़ आगमन हुआ तो वह इस एकेडमी में रुके थे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों से बचने के लिए कई-कई दिनों तक पं. जवाहर लाल नेहरू खास तौर यहीं पर शरण लेते थे । नेहरू के आधा दर्जन यात्रओं का जिक्र यहां मिलता है। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री व इंदिरा गांधी जैसी शख्सियतों द्वारा उर्दू में लिखे गए पत्र भी यहां मौजूद हैं। नवाब मोहसिन उल मुल्क़ ने इन्हें अंजुमन ए तरक़्क़ी ए उर्दू का पहला सचिव बनाया था । ये हिन्द की ग़ुलामी के भी सख़्त ख़िलाफ़ थे इन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बहुत ग़ज़लें और मज़मून लिखें.
इन्होंने सिरात-उन-नबी ( जिसको इनके शागिर्द सुलेमान नदवी ने पूरा किया ) सिरात-अन-नोमान, अल-फ़ारुख ( खलीफा उमर रज़ि ० पर ) अल-गज़ाली ( इमाम ग़ज़ाली पर ) मौलाना रूमी ( मौलाना रूमी की ज़िंदगी पर ) इमाम इब्ने तैमिया ( जिसको इमाम इब्ने तैमिया पर लिखा जोकि इनके शागिर्द मुहम्मद तंज़ीलूल सिद्दीक़ी अल हुसैनी ने लिखी) सफ़र-नामा-ए-रोम-ओ-मिस्र-ओ-शाम ( जोकि एक सफर की दास्ताँ है ) औरंगज़ेब आलमगीर पर एक नज़र, शेर उल अजम, इल्म-क़लम, और अल मामून आदि किताबें लिखीं.
अल्लामा शिब्ली नोमानी ने अपने सफरनामे में लिखा है कि जब वो शाम व मिस्र व फलस्तीन के सफर पर समुंद्री रास्ते से रवाना हुए तो बीच समुंदर में उनका जहाज़ भंवर में फंस गया, और इंजन खराब हो गया, पुरे जहाज़ पर अफवाहों का बाज़ार गर्म था, लोग पूरी तरह ख़ौफ़ज़दा थे, उसी दौरान अल्लामा शिब्ली अपने हमसफ़र अँगरेज़ प्रोफेसर के कमरे में गए, तो देखा प्रोफेसर मौसूफ़ आराम से लेटे हुए किताब पढ़ने में मशगूल हैं…
अल्लामा शिब्ली ने उन्हें यूँ बे खौफ देखा तो ताज्जुब से सवाल किया… आपको मालूम है हम मुसीबत में हैं ? प्रोफेसर ने बे परवाई से जवाब दिया, मालुम है.. अल्लामा ने और हैरत से कहा तो आप सुकून से क्यों लेटे हुए हैं..? उन्होंने जवाब दिया, दो बातें होंगी, या तो हम बच जाएंगे, या मर जाएंगे… अगर मर गए तो कोई अफ़सोस नही… लेकिन अगर बचे तो मुझे अफ़सोस होगा कि मैने अपना कीमती वक़्त वावेला करने और बे फायदा ख़ौफ़ज़दा होकर ज़ाय कर दिया… इसलिए मुझे लगता है कि जो मुख़्तसर सा वक़्त है उसे कामयाब कर लूं ।
18 नवम्बर 1914, को हिन्दोस्तां का यह अज़ीम सिपहसालार इस फानी दुनिया को छोड़कर चला गया ।
🕛 18 नवम्बर 1914 ई०
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इस आर्टिकल को शहबाज अहमद ने लिखी है.✍