“मौलवी मुहम्मद अली बाकिर”
1780 में दिल्ली के एक बडे़ घराने में पैदा हुए, मौलवी मोहम्मद ने प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से हासिल की। बाद में वह आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए1828 में ‘दिल्ली कालेज’ गए। वहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह फारसी भाषा के अध्यापक हो गए। इस नौकरी के बाद वह आयकर विभाग में तहसीलदार के पद पर नियुक्त किए गए।
नौकरी करना उनका लक्ष्य नहीं था। 1836 में जब ब्रिटिश सरकार द्वारा “प्रेस एक्ट“ में संशोधन किया गया और आमजन को प्रकाशन की अनुमति दी गई तो उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया।
अंग्रेजी हुकूमत द्वारा प्रेस एक्ट:
1837 में उन्होंने साप्ताहिक “देहली उर्दू अखबार” के नाम से समाचार पत्र शुरू कर दिया। यह अखबार लगभग 21 वषों तक लोगो को जागरूक करता रहा। जो उर्दू पत्रकारिता के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुआ।
इस अखबार की मदद से आपने सामाजिक मुद्दों के साथ साथ जनता में राजनीतिक दिलचस्पी देखने को भी मिली। विदेशी शासकों के खिलाफ एकजुट करने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्योंकि उस समय देश में स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चल रहा था और भारतीय भाषाओं में उर्दू ही एकमात्र ऐसी भाषा थी जो देश के कोने-कोने में बोली और समझी जाती थी, उर्दू के शायरों, साहित्यकारों और लेखकों ने भी देश के प्रति अपने वफादारी को समझा और उसको निभाया भी था।
22 मार्च 1822 को कलकत्ता से निकलने वाला “जाम ए जहां नुमा” अख़बार भारतीय उपमहाद्विप का पहला उर्दु अख़बार था। मगर मौलवी बाकिर ने साप्ताहिक उर्दू अखबार प्रेस खड़ा किया। उस समय हिन्दुस्तान मे निकलने वाले सुलतानुल अख़बार, सिराजुल अख़बार और सादिक़ुल अख़बार फ़ारसी ज़ुबान के अख़बार थे। ये वो वक्त थे जब अखबार निकालना बहुत मुश्किल था।
मौलवी साहब ने अपने अखबार का दिल्ली में ना सिर्फ बल्कि दिल्ली के आसपास इलाकों में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनमत तैयार करने में अखबार का भरपूर उपयोग किया।
“देहली उर्दू साप्ताहिक” समाचार पत्र का अंग्रेजी पे असर:
1857 की क्रांति में “देहली उर्दू साप्ताहिक” ने अंग्रेजो की नज़र में उस समय का सबसे बाग़ी अखबार देहली उर्द समाचार पत्र बन चूका था। क्योकि ये अख़बार अपनी कलम से निकलने एक एक शब्दों के ज़रिये फिरंगी हुकूमत को हिला रखा था। गुलामी के उस दौर को निकलने के लिए मज़हब के बड़े आलिमो के फतवों, और बागियो के घोषणा पत्रों को अखबार मे प्रमुख स्थान दिया जाता था। इस वतन परस्ती पर वह “सिपाह-ए-दिलेर,”“तिलंगा-ए-नर-शेर”और“सिपाह-ए-हिंदुस्तान” जैसे खिताबो से इन आज़ादी के नौजवानों को सराहा गया। यही नही उन्होंने अपनी कलम से हिंदू सिपाहियों को अर्जुन या भीम बनने की लिये प्रेरित करना जारी रखा था। वही दूसरी तरफ मुसलमान सिपाहियों को रूस्तम, चंगेज और हलाकू की तरह अंग्रेजों को समाप्त करने के बाग़ी अंदाज़ को सुलगाते रहे।
सभी धर्म, एकता का मरकज़ था देहली उर्दू अख़बार
अंग्रेजों की सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाली चालों को बेनकाब कर हिंदुओं और मुसलमानों दोनो को खबरदार कर एकजुटता पैदा करने वाली खबरों ने ” मौलवी मुहम्मद अली बाकिर” को अंग्रेजो का सबसे बड़ा दुश्मन बना दिया था। 25 मई 1857 के अंक में उनकी एक विज्ञप्ति मेरठ में विद्रोही सेना की विजयी समाचार के साथ छपी थी- नज़्म के बोल कुछ इस तरह थे कि अंग्रेजो के दांत खट्टे हो गए थे
शहीद मौलवी मुहम्मद अली बाकिर:
14 सितंबर 1857 को मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के दिनों के अंदर इस न्यायिक प्रकिया को पूरा किया गया। क्योंकि अंग्रेज़, मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को मृत्यूदंड देकर इस कलम की आवाज़ को बंद करना चाहते थे। 16 सितंबर 1857 को अंग्रेज़ अधिकारी मेजर हडसन ने सजा-ए-मौत सुनाई।
अकेले मौलवी मुहम्मद अली बाकिर ही नहीं बल्कि उनके सारे सलाहकार इस आज़ादी के लड़ाई में कलम के ज़ोर से अपना सब कुछ निछावर कर दिया था।
कहते हैं उन्होंने बिना तलवार उठाए अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था.
“दुआ से कभी मत थको,
क्योंकि खुदा ने इसे बहुत अहमियत दिया है।”
(मुहम्मद अली बाकिर)
हिंद राष्ट्र के पत्रकार भी मौलवी मुहम्मद अली बाकिर साहब के राह पर चलते हुए समाज की अखंडता ज़ुल्म के खिलाफ मज़लूम की हिमायत के लिए अपने कलम द्वारा किरदार अदा करेंगे।
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By: Tanwi Mishra