वर्ष 1937 में बनारस ज़िला न्यायालय में दीन मोहम्मद द्वारा दाखिल वाद में ये तय हो गया कि कितनी जगह मस्जिद वक़्फ़ की संपत्ति है और कितनी जगह मंदिर है. देखें फोटो 2, 3,.
इस फैसले के ख़िलाफ़ दीन मोहम्मद ने हाई कोर्ट इलाहाबाद में अपील दाखिल की जो 1942 में ख़ारिज हो गयी. इसके बाद प्रशासन ने बेरिकेटिंग करके मस्जिद और मंदिर के क्षेत्रों को अलग अलग विभाजित कर दिया. वर्तमान वजू खाना उसी समय से मस्जिद का हिस्सा है.
सवाल — 1. क्या 1937 और 1942 में ये कथित शिवलिंग जो आज सर्वे टीम को मिला है, वहां मौजूद नहीं था… अगर तब नहीं था तो आज कैसे मिल गया.
2. हैरत की बात है कि मंदिर प्रबंधन कमेटी या किसी भक्त ने इसके वजू खाने में होने का दावा 1937 से 2022 तक नहीं किया. इस से साबित है कि यह कोई पुरातन शिव लिंग नहीं है जिसकी पूजा कभी होती थी, ये आज की एक कपोल कल्पना है और सबूत गढ़ने का प्रयास है.
3. प्लेस ऑफ़ वरशिप एक्ट 1991 की रोशनी में इसे जिसे शिव लिंग कहा जा रहा है, क्या मंदिर का पूजा स्थल माना जाएगा. 15 अगस्त 1947 को यह स्थिति नहीं थी. आज जो कुछ साबित करने का प्रयास वादी पक्ष इस केस में कर रहा है, वह 15 अगस्त 1947 की स्थिति को बदलने का कुत्सित प्रयास है.
सवाल बहुत हैं, फिलहाल कल सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई पर नज़रें हैं.
एडवोकेट असद हयात सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं गोरखपुर दंगे मामले को काफी मजबूत आवाज के साथ कानूनी रूप रेखा तैयार किया था।