जब मुलायम सिंह यादव साहब ने मरहूम मुस्तफा कमाल शेरवानी साहब को समाजवादी पार्टी में शामिल होने और मंत्री पद का ऑफर दिया, मगर शेरवानी साहब ने कुर्सी नहीं, बल्कि हक़ की लड़ाई चुनी और समझौता करने से इनकार कर दिया और उत्तर प्रदेश में लॉटरी के जरिए गरीबों और मजदूरों का खून चूसा जा रहा था, लेकिन शेरवानी साहब की ‘मुस्लिम फोरम’ ने मजलूमों की आवाज़ बुलंद की और इस लॉटरी को बंद करवाकर ही दम लिया! यह वही शेरवानी साहब की मुस्लिम फोरम दल थी, जिसने यूपी की 200 विधानसभा सीटों पर असर डालने वाली ताकत बना ली थी
जनरल खालिद बिन वलीद की यह रणनीति आज भी रहस्य बनी हुई है कि आखिर 1700 घुड़सवारों ने कैस्पियन सागर को कैसे पार किया! मगर रहस्य जितना गहरा होता है, उतनी ही दिलचस्प कहानियाँ बनती हैं। डॉ. मुस्तफा कमाल शेरवानी भी एक ऐसी ही शख्सियत थे, जिनकी जिंदगी खुद एक कहानी थी—एक ऐसा किरदार, जो हिंदुस्तान की राजनीति और समाज में अपने निशान छोड़ गया।
शेरवानी साहब का ताल्लुक उत्तर प्रदेश के एटा जिले से था, मगर उन्होंने अपना ठिकाना लखनऊ को बनाया। शिया कॉलेज में लॉ प्रोफेसर के तौर पर पढ़ाया, मगर उनका हुनर सिर्फ तालीम देने में नहीं था। उन्होंने एक राजनीतिक योद्धा बनकर भी दिखाया! अखिल भारतीय मुस्लिम फोरम का गठन किया, जो न सिर्फ अल्पसंख्यकों की आवाज बनी बल्कि उसने हाशिए पर खड़े तमाम मजलूमों, मजदूरों और बेबसों की लड़ाई लड़ी।
लोग सोचते थे कि यह कोई मुस्लिम पार्टी होगी, मगर हकीकत यह थी कि इस आंदोलन में गैर-मुस्लिम नेता भी उतने ही जोश से जुड़े थे। उग्रसेन प्रसाद दुबे, ज़बी अतहर खान, अरशद आज़मी, सालाउद्दीन खान, और डॉ. नेहालुद्दीन अहमद जैसे लोग इस मुहिम के अहम किरदार थे। यह एक ऐसा मंच था, जिसने यूपी की 200 विधानसभा सीटों पर असर डालने वाली ताकत बना ली थी!
शेरवानी साहब की बातें तलवार की तरह चलती थीं! वे लफ्ज़ों के बादशाह थे, उनकी तकरीरें लोगों के दिलों में आग भर देती थीं। उनकी आवाज़ में दम था, सोच में वज़न था। यही वजह थी कि जब उत्तर प्रदेश में लॉटरी का खेल मजदूरों और गरीबों का खून चूसने लगा, तो मुस्लिम फोरम ने आवाज़ उठाई और इस लॉटरी को बंद करवाकर दम लिया!
अब ज़रा मंडल कमीशन की बात करें। 1990 के दशक में जब मंडल आयोग की रिपोर्ट आई और 27% आरक्षण की घोषणा हुई, तो पहली बार कुछ मुस्लिम जातियों को भी इसका फायदा मिला—अंसारी, गद्दी, रंगरेज़, जो यादव, कुर्मी और कुशवाहा जैसी जातियों के साथ ओबीसी में आए। मगर शेरवानी साहब ने इसे काफी नहीं समझा। उनका कहना था कि मुसलमानों की शैक्षिक स्थिति यादवों, कुर्मियों और पटेलों से भी ज्यादा खराब है, इसलिए उनका अलग कोटा होना चाहिए—8.44% आरक्षण सिर्फ मुसलमानों के लिए!
मुलायम सिंह यादव ने शेरवानी साहब और डॉ. नेहालुद्दीन को समाजवादी पार्टी में शामिल होने का न्योता दिया और मंत्री बनाने का वादा किया, मगर इन्हें कुर्सी नहीं, अपने मजलूमों का हक़ चाहिए था! उन्होंने ऑफर ठुकरा दिया और अपनी मांग पर अड़े रहे।
अब कहानी में ट्विस्ट आता है। जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं, तो उन्होंने इस मुद्दे पर बातचीत की कोशिश की, मगर समझौता नहीं हो सका। फिर मुस्लिम फोरम के नेताओं पर पुलिस की रेड करवाई गई, गिरफ्तारियां हुईं, जेल भेजने की धमकियाँ दी गईं। मगर लखनऊ की अदालत में वकीलों ने ऐसा मोर्चा संभाला कि मजिस्ट्रेट को जमानत देनी पड़ी!
आखिर में, शेरवानी साहब ने अपना करियर तंजानिया विश्वविद्यालय के उप कुलपति के तौर पर खत्म किया और जिंदगी के आखिरी साल लखनऊ में अपने परिवार और चाहने वालों के बीच गुजारे। उनका नाम आज भी यूपी की राजनीति में इज्जत से लिया जाता है।
तो ये थी कहानी एक ऐसे शख्स की, जिसने मजलूमों के लिए अपनी जिंदगी लड़ाई बनाकर गुजार दी!