अलीगढ़ अली का दरवाजा कहा जाता है इसकी पहचान तालीम और तहजीब से है.
सर सैयद अहमद खान की वजह से इस शहर को पहचान मिली इस शहर में 1857 में गदर के बाद 1875 में सर सैयद अहमद खान ने जो इल्म की शमा जलाई थी वह 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में तब्दील हो गई।
यह शहर इसलिए भी ऐतिहासिक है कि यहां धार्मिक और जातीय लड़ाई नहीं है यहां शिया , सुन्नी , ब्राह्मण ठाकुर , राजपूत सब आपस में मिलकर रहते हैं।
हर साल मोहर्रम आता है सुन्नी और सिया मिलकर जुलूस का इंतजाम करते हैं और करे भी क्यों ना हसन इमाम और अली को अपना आदर्श मानते हैं।
आपको बता दे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय वाइस चांसलर लॉज के पीछे हर साल की तरह इस साल भी 10 आशूरा मुहर्रम के दिन सुबह 9:00 बजे बैतूल सलात में इमामे जुमा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मौलाना जाहिद हुसैन अपनी बात रखेंगे।
और फिर वहां से काफिला रवाना होगा जुलूस के शक्ल में और शमशाद मार्केट जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के बराबर में है वहां पर प्रोफेसर अली अमीर मजलिस जुलूस के बीच अपनी बात रखेंगे।
उसके बाद पहले जेल रोड पर भी मजलिस जुलूस में अपनी बात रखने का रिवाज था पर गुजरता वक्त में अब नहीं रखी जा रही है बल्कि उसकी जगह थोड़े से आगे चलकर अलीगढ़ की ऐतिहासिक नुमाइश ग्राउंड में जुलूस पहुंचेगा और मजलिस के बीच में वहां बात रखी जाएगी और करवा नई बस्ती अलीगढ़ जब पहुंचेगी जुलूस में मजलिस में अपनी बात रखेंगे मोहम्मद हैदर साहब।
फिर वह कारवां अलीगढ़ कोल सिविल लाइन इलाके से बढ़कर अलीगढ़ शहर के शाहजमाल के ऐतिहासिक कर्बला के पास जुलूस पहुंचेगा और मजलिस के बीच अपनी बात रखेंगे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सैयद मोहम्मद इमामे जमात।
AMU Old Boys Association के सेक्रेटरी डॉक्टर आजम मीर ने कहा एएमयू का इतिहास रहा है शिया सुन्नी इतिहास के लिए हर साल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के ओल्ड बॉयज में प्रेस कॉन्फ्रेंस होती है और एक ऐसा इरादा है कि यहां की जमा मस्जिद में एक साथ नमाज होती है।
कर्बला के मतववाली एवं ऑर्गेनाइजर मुख्तार जैदी ने कहा सरकार द्वारा निर्देश दिए गए जो भी आदेश हैं कानून के दायरे में रहकर मजलिस और जुलूस में आगे लेकर बढ़ाना है और लोगों से अपील भी की है गैर कानूनी कोई भी कार्य न करें और हसन हुसैन और हजरत अली सच्चाई के प्रतीक हैं इस बात का ख्याल रखें।
आपको बता दें कि मुहर्रम के दसवें दिन को आशूरा के नाम से जाना जाता है, जिसे सभी मुसलमान अंतिम पैगंबर मुहम्मद के पोते हजरत इमाम हुसैन की शहादत के उपलक्ष्य में मनाते हैं।
शिया मुसलमान आशूरा के दिन शोकगीत गाते हैं। ये शोकगीत कविताएँ और गीत हैं जो कर्बला की लड़ाई की घटनाओं का वर्णन करते हैं। आत्म-ध्वज: कुछ शिया मुसलमान आशूरा के दिन आत्म-ध्वज करते हैं।