लाल किला में दशहरा मनाने का रिवाज़
हिन्दोस्तानी बादशाह अकबर के दौर से शुरू हुआ हिंदू त्योहारों को मनाने का परंपरा
शाही रामलीला स्टेज पर रामचरित मानस का उर्दू और फ़ारसी में होता था पाठ
दशहरे के दिन हिन्दोस्तानी मुगल बादशाह नीलकण्ठ पक्षी उड़ा कर करते थे शुभारंभ
दिल्ली की मशहूर रामलीला 350 साल पहले मुगल बादशाह शाहजहां ने शाहजहानाबाद (पुरानी दिल्ली) में शुरू की थी
दिल्ली के लालकिले के बाहर सजी अज़ीमुश्शान राममलीला को देखकर आपके मन में क्या ख्याल आता है। ये कब से शुरू हुई होगी चलिए आपको बताते है।
दरअसल सबसे पहले हिंदू त्योहारों को मानाने का परंपरा शहंशाह अकबर के दौर में शुरू हुआ था। जिसे हिन्दोस्तानी मुगल बादशाह औरंगज़ेब के एलावा सारे ही मुग़ल बादशाहों ने बहुत धूमधाम से शाही अंदाज में मनाया। दिल्ली में जन्मे और रंगून बर्मा में दफन हुए आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर के दौर तक तो धूम धाम का पैमाना अपने उरूज़ पर था।
मुग़ल दरबारी मुंशी फैजुद्दीन लिखते हैं- दशहरे की सुबह बहादुरशाह ज़फ़र सबसे पहले किले की बालकनी से खड़े होकर नीलकण्ठ पक्षी देखते थे जो हिंदू धर्म के अनुसार दशहरे के दिन नीलकंठ देखना शुभ माना जाता है। फिर दोपहर होते ही किले से शाही सवारी निकलती थी जो किले के पीछे यमुना नदी के किनारे बने रामलीला स्टेज तक जाती थी।
दिल्ली की मशहूर रामलीला 350 साल पहले शाहजहां ने शाहजहानाबाद (पुरानी दिल्ली) में शुरू की थी जो आज तक चली आ रही है। दशहरे वाले दिन बादशाह अपने हाथों से नीलकण्ठ पक्षी उड़ाते थे और उसके बाद शाही रामलीला स्टेज पर रामचरित मानस का उर्दू और फ़ारसी में पाठ किया जाता था। अजमेरी गेट के पास एक शाहजी का तालाब था। जिसमें वनवास के दौरान राम, लक्ष्मण, सीता सरयू नदी पार करते थे।
लेकिन 1857 के इंकलाब के बाद बहादुर शाह ज़फ़र को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और शाही रामलीला बन्द हो गई। नफरत के दौर में अब ये सब मायने नही रखता की मुग़लो ने क्या किया, क्यों किया। उनके लिये तो मुगल दुश्मन थे, लुटेरे थे। सब कुछ लूटकर ले गए। कहां ले गए नहीं पता। शायद रंगून में बहादुर शाह जफर के उस छोटे से कमरे में जहां उन्होंने आखिरी सांस ली या फिर यह सारी मनगढ़ंत कहानी इसलिए रची जाती है ताकि मुसलमान अपना सुनहरा इतिहास भूल जाए और गुलामी तस्लीम कर ले।